मेरे चहेते मित्र

Thursday, November 17, 2011

रोजगार




हर रात बिस्तर से आस लगता हूँ
कि कल सवेरा ना हो
और मैं ता उम्र या इसके बाद भी
गहरी नींद में सो जाऊं
तो फिक्र ही न होगी मेरे आने वाले वर्तमान कि
और नाही चिंता सताती मेरी शेष बचे अभिमान की
पर यह संभव तो है  नहीं
 इसलिए सुबह होने से पहले नींद खुल जाती है
और रोजगार की बात याद दिलाती है
पर ये मन आलस  बेबस
फिर सो जाता है और पुनः
झूठे  सपनो में खो जाता है ....
 जैसे गरीबों के सपने भी बहुत होतें है
थोरे हँसते है तो कुछ रोतें है
आस में साड़ी जिन्दगी जोहते हैं 
और तबतक सुबह हो जाती है 
बीवी उठाती है, और चिल्लाती है 
की आज काम पर नहीं जाना 
घर में आयेगा कैसे अनाज का दाना ,
और छोटी सी दिवार पर 
लटकी  घडी  की बरी सी सुइयां मुझे 
बार -बार याद दिलाती है
की बेटे उठ जा, नहीं तो  तेरी नौकरी जाती है 
क्या चाय क्या नाश्ता चलो पकरो ऑफिस का रास्ता 
बॉस देते है हमको ना जाने किस किस का वास्ता 
और इशारे से दिखाते है हर -बार बाहर का रास्ता 
वहाँ  भी सुकून की कुर्सी नहीं है 
जो मैंने काम किया था क्या वो सही है? 
इन्ही सब बातो से मैं जाता हूँ हार 
यही है मेरा जीवन, मेरा रोजगार  


Sunday, November 6, 2011

तलाश


जब भी होती हो आस पास 
तुझे देखने की रहती है प्यास 
नज़रें सख्त चट्टान साथ 
करती है दीदार साँस दर साँस
पलकों का पीछा करते गीरे जैसे आकाश
और उस अँधेरे में ख्याल है तेरा खास 
और उठे तो खोले खजाने का कपाट...
 जिससे बढ़ जाती है फिर मेरी दीदार की प्यास 
खज़ाना देख लालच किसे ना होता  
मैं तो बस अदना इंसान हूँ छोटा 
सिर्फ खुद से बेबस ख़जाना देखता हूँ 
और वो खुद  मेरे पास आए  यही सोचता हूँ  
पर सोचने से पूरी नहीं होती है आस 
सिर्फ इंतजार ही है शेष मेरे पास 
इंतजार भी इंतजार कर थक जाएगी 
तब खुद का प्रयास ही रंग लाएगी 
वही मेरी तलाश कहलाएगी

Sunday, October 9, 2011

बिहार के ज़ज्बात


वो जंगलों के नाम से
था कभी मशहूर क्यूँ,?
हाँ शेर तो थे कई 
पर इतना भी गुरुर क्यूँ,?
सीखे थे सब पथिक
यहीं से चलना दूर क्यूँ?
जो ज्ञान कहीं नहीं मिली 
यहीं मिला हुजुर क्यूँ?
हुकुमत-ऐ-हिंदुस्तान 
तेरे रजा-इन्द्र यहीं के थे|
जय घोष जय प्रकाश के
फूल भी यहीं खिले |
वो नीली गायों के लिए 
दौड़ कर यहीं चलें,
स्मरण कथन की बात
वो सर्व प्रथम यहीं चलें|
आन्दोलनों को ले चले,
क्रांति की लहू भरे|
जग देख ना सका
किसे किरकिरी सी लगी,
ना जाने किस दौर में
इसे किसकी नज़र लगी|
और धुल सी आंधियां
भी तेज़ चलने लगी ,
उस पर न मिला कोई साथ ,
सब दूर होने लगें 
मन पर बसी थी ललक 
पर ख़त्म थी इसकी चमक|
और अँधेरी यह राह थी 
कईयों की इसमें आह थी 
काल राह  में जो भी पथिक
चलें सर्वस्व जान कर,
कुछ तो सहम गएँ 
और कुछ क्रोध में अहम् गएँ,
रक्त अपना बहता देख
वो लहू के प्यासे बन गएँ |
शुरू हो गयी देखो
यहाँ भी रण की होलियाँ,
और दूर से देख कर 
वो देने लगे हमें गलियां |
पहले तो बाग़  फूल से था भरा ,
देखो बन गयी है रक्त की घरा
ये तपस्वी जन्म भूमि 
तू देख चुप है क्यूँ पड़ा
युहीं पहर-दर-पहर 
साल भी बीतता  गया 
जो रक्त का बाग़ था
वो किचर में बदल गया 
और गंध दे रही थी 
यहाँ की मिटटी बुरी 
उस पर उपज परे
यहाँ नक्सली बरी 
जो भी उम्मीद थी
वो सारे  अब डर  गयी 
पर जो बोलना चाहा 
उसके  घर बम पर गयी 
बेटियों की हयात 
खुले में लुटने लगें 
माँ बिधवा देख ,
अश्रु धार बहने लगे 
निः शब्द मुख खोल कर 
जब बोलना जो चाहा
तब ज्ञात हमें ये हुआ
की शिक्षा तो  विरल हुई
जो सबने सिखा उसमें
हमने बरी देरी की 
बस एक ही रास्ता था
हमें मजदूरी की 
राज्य जैसे सारे
इसी के फ़िराक में परे 
अपने कारखानों में 
बिहारी मजदुर ही भरें 
जो आग जल परी थी 
पेट की वो ना बुझी 
मजदूरी के आलावा 
कोई दूसरा रास्ता ना सूझी 
निकल परे अपने 
जिगर के टुकड़े घर छोड़  कर 
ये देव देखना इन्हें 
करता हूँ प्रणाम हाथ जोड़कर 
बलिष्ठ था ये बदन 
पर अवशाद ग्रस्त था ये मन 
क्या कमा  पाउँगा धन 
बसर होगा कैसे ये जीवन 
दो लाल पूत भी तो हैं 
उन्हें दूंगा शिक्षा गहन 
ये चेतना लिए
निकल परा ये बिहारी मन 
रेल की धार चलें 
बिहारी हजार चलें 
ढूंढने रोजगार चलें ,
घर से बार -बार चलें 
नयी थी वेश 
नया प्रदेश 
नया नया था समावेश 
दुत्कारियां ,
गालियाँ, 
मजाक की वो तालिया
कर के सहन 
रहन सहन 
हम सब ने अपनालिया 
वे देखते थे आज कल
हम थे हमेशा अटल 
धन खूब बटोरा लुट के
बदनामी हुई थी प्रबल 
इसी से लहू बबल गया 
हर बिहारी संभल  गया 
अब फ़िक्र थी मान की 
स्मिता और अभिमान की 
सवालों की बौछाड़ हुई 
आखिर हमारी क्यूँ हार हुई 
खुद से सवाल कर उठे ,
हम बिहारी  क्यूँ डर उठे 
नव जागरण की बात हो 
अब दिन हो न काली रात हो 
नव चेतना हम में जगा 
दुराचारियों को अब भगा 
सह लिया इस मार को 
अब हटाओ इस सरकार को 
जिसे कुछ ना ख्याल है 
अपने प्रदेश का क्या हाल है 
जनता का यह रोष था
सरकार को न होश था 
बस स्वयं में ही थे मग्न
जन को लूटे सब मंत्रीगण
यह देख आग सी लगी 
नेता छवि दाग सी लगी 
युवा मंच का था आवाहन 
जन शक्तियों का कर गहन 
कर ख़त्म दबंग भ्रष्टाचार 
ला अब यहाँ नयी सरकार 
नव क्रांति की बात हो 
सुख शांति की बात हो 
जिस पर सभी की आस हो 
अब हमारा भी विकाश हो |

Monday, October 3, 2011

मीठा पुर का पुल और पटना

आज पटना शहर थोरी उचीं लग रही थी 
क्योंकी उसमे एक नई पुल जुट गयी थी 
नए रास्तो का अनुभव बड़ा अजीब था 
क्योंकि कुछ आमिर था तो कुछ गरीब था 
जिनको हमने  अक्सर सर उठा के देखा था
वे आज छोटी, बौनी  और गन्दा सा था 
कौन सी रेल अब किधर को जाएगी 
हमें अब मालुम पड़ जाएगी............
pearl  की टूटी दीवारों से उसकी नाम 
आज भी मोतिओं सी चमक रही थी 
आज उचाई से मुझे वो भी दिख रही थी
पर उसके पीछे का बरसो पुराना जमीं रो रहा था
सायद वोह बुढा हो गया था ..........................
 और उस बूढी जमीं पर  चंद्रलोक का सपना अब भी  सो रहा था 
लगता है  पुल वो मीठापुर  वाला यही सोच रहा था  
और मन ही मन उन करकट  की दुकानों  को 
अपनी ऊंचाई का अहसास करा रहा था 
की उठो तुम भी मेरी तरह सुन्दरता और ऊँचाइयों को छु लो |

Saturday, July 30, 2011

दो गिलहरी

मेरे कॉलेज के प्रांगन  में
दो गिलहरी थे मग्न से  I 
कभी पेड़ पर कभी दीवारों के ऊपर चढ़ते दन से I
कभी खिडकियों  से झाका  करते 
क्या शिक्षक पढ़ाते मन से I 
कबी कूद कर जामुन के पेड़ो पर जाते सन से 
झकझोरे डाली को ऐसे हो नई योवन से 
कभी दौर कर वर्ग में जाते 
कभी खाल्ली को उठाते 
कभी घुर कर देखा करते क्या बच्चे पढ़ते लगन से 
मेरे कॉलेज के प्रांगन में 
दो गिलहरी थे मगन से I

Thursday, July 21, 2011

बुख़ार

आज मेरा मन थका- थका सा लाचार है 
शायद मुझे थोरा बुख़ार है 
दुसरे का बोझ उठाना तो दूर 
अपना कन्धा ही भार है  
आंखे देखने को बार बार खोलता हूँ मैं 
पर ना जाने कैसी इसमें खुमार है  
चाहता तो हूँ दौर कर दुनिया घूम लूं 
पर अपनी टांगे बेबस बेकार है 
मन की बात तो बताना चाहता हूँ 
ना जाने इसपर  कैसा भार है 
पूरी दुनिया को जोड़ने की ख़ाहिश है 
पर अपना हीं बदन  टूटकर बेज़ार है





Wednesday, July 6, 2011

उसकी मांग

आज मेरे खून का जवाब माँगा गया 
उसके हर बूंद का हिसाब माँगा गया 
जो भी मिला था जीने के  लिए  
उसकी कहानियों का किताब माँगा गया 
 परत दर  परत जोड़कर जिन्दा हूँ 
आज उसके भी फटे जुराब माँगा गया 
माना की तन ढकने को कपडे  दिए थे 
पर आज वो सारे कपडे  ख़राब माँगा गया 
जब भी रोता था भूख से तड़प कर 
तब तब मुझसे थाली का आकार माँगा गया 
जब भी नींद आती थी मुझको 
तब तब सोने का अधिकार माँगा गया 
चलते चलते जब भी थक कर हार जाता था 
मुझसे दौड़ने का व्यव्हार माँगा गया 
देखता था ढेर सारे सपने हर रोज़ 
उनसे नाता तोड़ने का आधार माँगा गया 




Wednesday, June 15, 2011

कब लौट के आओगे

कुछ वक्त गुजर गया दरिया बनकर 
जिसके इंतजार में आज भी हूँ! 
उस वक्त की कुछ दर्द छुट गयी है मेरे मन पर
कुछ धुंधली तस्वीरे अभी बाकी है यहाँ उसकी 
कुछ ख़ुशी और कुछ गम का लम्हां यादों में संभालें हूँ 
उस यादों की एक पोटली अभी बाकी है उसकी
एक अफशोश है मेरे पास जो जाती ही नहीं है 
और बार बार ताने दे कर उसकी  याद दिलाती है 
कुछ मेरा सामर्थ और थोरी उम्र वो लेकर चला गया है 
बदले में थोरी बदकिसमती छोर गया है मेरे लिए 
क्या कुछ पन्ने ही  तय करते रहेंगे समाज में मेरी जगह 
या मेरी कोई अहमियत नहीं है तेरी महफ़िल में 
गुजारिश करते करते मौत के दरवाजे तक आ गया हूँ 
अब गुजारिश भी नहीं कर सकता बस इन्तेजार में हूँ 
ये वक्त तू कब लौट कर आयेगा 
और मेरी किस्मत को कब वापस करेगा 
कब अपनी अमानत, जो सदियों से मेरे पास परी है 
न जाने खुद भी सड़ कर मुझे भी बर्बाद कर रही है 
को ले कर जाओगे !

Monday, March 14, 2011

आदत

हर रोज़ सोने की आदत सी हो गयी है  
आँखे  खुलीं है और रोने की आदत सी  हो गयी है
क्यों शोलो को भड़कने नहीं देते ......................
धुआँ तो उठते देखता हूँ पर  चिंगारी बुझाने की आदात सी हो गयी है 
भले ही कबूतरों को खुला छोर रखा है ...............
परिंदे जब भी उड़ते है उन्हें गिराने की आदत सी हो गयी है  
 कहते हो की यहाँ ही  युद्ध नहीं ..................
और हमें लड़वाने की आदत  सी हो  गयी है  
उस खूंखार मुज़रिम का क्या कसूर  ................
उसे तो  सज़ा भुगतने की आदत  सी हो  गयी है 
बा उम्र रास्तों  पर चलूँगा मै ..............
मेरी मंजिल तलाशने की आदत सी हो गयी है
जब भी देखता हूँ नज़रे उठाकर उन्हें .......
उनकी आँखे चुराने की आदत सी हो गयी है
गुजर गया वक्त दरीया  की तरह ........
अब  शिकवे गिनाने की आदत सी हो गयी है
शहर  घूम के कई थक चूका हूँ मै .....
अब घर लौटने की आदत  सी हो गयी है 














Friday, February 25, 2011

दिल की चाहत

कुछ बंदिशे तोरने को दिल चाहता है 
कुछ गलतियाँ करने को दिल चाहता है 
हम चल ना सके जिन राहों में
उन रास्तों पर चलने को दिल चाहता है
करता तो हूँ मै हमेशा ही अच्छे काम 
पर आज कुछ गलत करने को दिल चाहता है 
बोलता हूँ हमेशा ही अच्छे बोल 
पर आज गलत बोलने को दिल चाहता है 
क्यूँ बोझ ढोता रहू मै समाज की 
आज समाज से लड़ने को दिल चाहता है 
ना ही मागुंगा इजाजत ना ही लूँगा किसी की मदद 
बस यूँ ही गिरते पड़ते दौड़ने को दिल चाहता है 
मेरी जिन्दगी खुले आसमां के नीचे खरी 
आज पंख लगा उड़ने को दिल चाहता है 
तू देख मेरे हसरतों के खज़ाने को 
आज खज़ाना भरने को द्दिल चाहता है 
ख़्वाब जो भी देखे है मैंने 
सारे ख़्वाब पुरे करने को दिल चाहता है

Friday, February 18, 2011

यहाँ

अजीब          सी        घुटन          है             यहाँ 
जुबां      तो       खामोश   है   पर   शोर   है  यहाँ 
उम्मीद     के  आशियाने   में   गुजर  रही जिन्दगी 
पर      मौत      कफ़न       बन     परी     है    यहाँ 
सोचते      है       की      आसमां     को     छू   लेंगे  
पर      कोशिश   अपाहिज    बन    खरी    है    यहाँ 
उम्मीद      तो       वो         बहुत    बढ़ाते  है   मेरी 
पर           हनुमान      तो    कोई    नहीं   है    यहाँ 
कबतक     तक    दौरेंगे  मंजिलों  के  तलाश में युहीं 
नित              रास्ते       बढ़      ही    रही   है   यहाँ 

Monday, February 14, 2011

kafan

भूख    से   भीगे   है    बदन 
शोषित   होता   रहा है  मन 
युहीं लुटते थे है वो मेरा धन 
अब  बीत  गए  सारे  सावन 
नाही  लौट  सकेगा   यौवन 
नहीं  सहा   जाता     जलन 
ये  दोस्त  लादो  मेरा  कफ़न!
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