आज पटना शहर थोरी उचीं लग रही थी
क्योंकी उसमे एक नई पुल जुट गयी थी
नए रास्तो का अनुभव बड़ा अजीब था
क्योंकि कुछ आमिर था तो कुछ गरीब था
जिनको हमने अक्सर सर उठा के देखा था
वे आज छोटी, बौनी और गन्दा सा था
कौन सी रेल अब किधर को जाएगी
हमें अब मालुम पड़ जाएगी............
pearl की टूटी दीवारों से उसकी नाम
आज भी मोतिओं सी चमक रही थी
आज उचाई से मुझे वो भी दिख रही थी
पर उसके पीछे का बरसो पुराना जमीं रो रहा था
सायद वोह बुढा हो गया था ..........................
और उस बूढी जमीं पर चंद्रलोक का सपना अब भी सो रहा था
लगता है पुल वो मीठापुर वाला यही सोच रहा था
और मन ही मन उन करकट की दुकानों को
अपनी ऊंचाई का अहसास करा रहा था
की उठो तुम भी मेरी तरह सुन्दरता और ऊँचाइयों को छु लो |
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