मेरे चहेते मित्र

Sunday, October 9, 2011

बिहार के ज़ज्बात


वो जंगलों के नाम से
था कभी मशहूर क्यूँ,?
हाँ शेर तो थे कई 
पर इतना भी गुरुर क्यूँ,?
सीखे थे सब पथिक
यहीं से चलना दूर क्यूँ?
जो ज्ञान कहीं नहीं मिली 
यहीं मिला हुजुर क्यूँ?
हुकुमत-ऐ-हिंदुस्तान 
तेरे रजा-इन्द्र यहीं के थे|
जय घोष जय प्रकाश के
फूल भी यहीं खिले |
वो नीली गायों के लिए 
दौड़ कर यहीं चलें,
स्मरण कथन की बात
वो सर्व प्रथम यहीं चलें|
आन्दोलनों को ले चले,
क्रांति की लहू भरे|
जग देख ना सका
किसे किरकिरी सी लगी,
ना जाने किस दौर में
इसे किसकी नज़र लगी|
और धुल सी आंधियां
भी तेज़ चलने लगी ,
उस पर न मिला कोई साथ ,
सब दूर होने लगें 
मन पर बसी थी ललक 
पर ख़त्म थी इसकी चमक|
और अँधेरी यह राह थी 
कईयों की इसमें आह थी 
काल राह  में जो भी पथिक
चलें सर्वस्व जान कर,
कुछ तो सहम गएँ 
और कुछ क्रोध में अहम् गएँ,
रक्त अपना बहता देख
वो लहू के प्यासे बन गएँ |
शुरू हो गयी देखो
यहाँ भी रण की होलियाँ,
और दूर से देख कर 
वो देने लगे हमें गलियां |
पहले तो बाग़  फूल से था भरा ,
देखो बन गयी है रक्त की घरा
ये तपस्वी जन्म भूमि 
तू देख चुप है क्यूँ पड़ा
युहीं पहर-दर-पहर 
साल भी बीतता  गया 
जो रक्त का बाग़ था
वो किचर में बदल गया 
और गंध दे रही थी 
यहाँ की मिटटी बुरी 
उस पर उपज परे
यहाँ नक्सली बरी 
जो भी उम्मीद थी
वो सारे  अब डर  गयी 
पर जो बोलना चाहा 
उसके  घर बम पर गयी 
बेटियों की हयात 
खुले में लुटने लगें 
माँ बिधवा देख ,
अश्रु धार बहने लगे 
निः शब्द मुख खोल कर 
जब बोलना जो चाहा
तब ज्ञात हमें ये हुआ
की शिक्षा तो  विरल हुई
जो सबने सिखा उसमें
हमने बरी देरी की 
बस एक ही रास्ता था
हमें मजदूरी की 
राज्य जैसे सारे
इसी के फ़िराक में परे 
अपने कारखानों में 
बिहारी मजदुर ही भरें 
जो आग जल परी थी 
पेट की वो ना बुझी 
मजदूरी के आलावा 
कोई दूसरा रास्ता ना सूझी 
निकल परे अपने 
जिगर के टुकड़े घर छोड़  कर 
ये देव देखना इन्हें 
करता हूँ प्रणाम हाथ जोड़कर 
बलिष्ठ था ये बदन 
पर अवशाद ग्रस्त था ये मन 
क्या कमा  पाउँगा धन 
बसर होगा कैसे ये जीवन 
दो लाल पूत भी तो हैं 
उन्हें दूंगा शिक्षा गहन 
ये चेतना लिए
निकल परा ये बिहारी मन 
रेल की धार चलें 
बिहारी हजार चलें 
ढूंढने रोजगार चलें ,
घर से बार -बार चलें 
नयी थी वेश 
नया प्रदेश 
नया नया था समावेश 
दुत्कारियां ,
गालियाँ, 
मजाक की वो तालिया
कर के सहन 
रहन सहन 
हम सब ने अपनालिया 
वे देखते थे आज कल
हम थे हमेशा अटल 
धन खूब बटोरा लुट के
बदनामी हुई थी प्रबल 
इसी से लहू बबल गया 
हर बिहारी संभल  गया 
अब फ़िक्र थी मान की 
स्मिता और अभिमान की 
सवालों की बौछाड़ हुई 
आखिर हमारी क्यूँ हार हुई 
खुद से सवाल कर उठे ,
हम बिहारी  क्यूँ डर उठे 
नव जागरण की बात हो 
अब दिन हो न काली रात हो 
नव चेतना हम में जगा 
दुराचारियों को अब भगा 
सह लिया इस मार को 
अब हटाओ इस सरकार को 
जिसे कुछ ना ख्याल है 
अपने प्रदेश का क्या हाल है 
जनता का यह रोष था
सरकार को न होश था 
बस स्वयं में ही थे मग्न
जन को लूटे सब मंत्रीगण
यह देख आग सी लगी 
नेता छवि दाग सी लगी 
युवा मंच का था आवाहन 
जन शक्तियों का कर गहन 
कर ख़त्म दबंग भ्रष्टाचार 
ला अब यहाँ नयी सरकार 
नव क्रांति की बात हो 
सुख शांति की बात हो 
जिस पर सभी की आस हो 
अब हमारा भी विकाश हो |

Monday, October 3, 2011

मीठा पुर का पुल और पटना

आज पटना शहर थोरी उचीं लग रही थी 
क्योंकी उसमे एक नई पुल जुट गयी थी 
नए रास्तो का अनुभव बड़ा अजीब था 
क्योंकि कुछ आमिर था तो कुछ गरीब था 
जिनको हमने  अक्सर सर उठा के देखा था
वे आज छोटी, बौनी  और गन्दा सा था 
कौन सी रेल अब किधर को जाएगी 
हमें अब मालुम पड़ जाएगी............
pearl  की टूटी दीवारों से उसकी नाम 
आज भी मोतिओं सी चमक रही थी 
आज उचाई से मुझे वो भी दिख रही थी
पर उसके पीछे का बरसो पुराना जमीं रो रहा था
सायद वोह बुढा हो गया था ..........................
 और उस बूढी जमीं पर  चंद्रलोक का सपना अब भी  सो रहा था 
लगता है  पुल वो मीठापुर  वाला यही सोच रहा था  
और मन ही मन उन करकट  की दुकानों  को 
अपनी ऊंचाई का अहसास करा रहा था 
की उठो तुम भी मेरी तरह सुन्दरता और ऊँचाइयों को छु लो |
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