मेरे चहेते मित्र

Sunday, March 18, 2018

आधा जीवन


बचपन से लेकर आज तक,
मेरा जीवन,         आधा है।

जब भी पूर्ण   करना चाहा,
मिले मुझको कई बाधा है।


जो प्राण मिला वो आधा था,
ना जानू मैं,  क्या बाधा था।

शायद,  रोग हज़ार था,
पर उसका  उपचार था।

उपचार हुआ  आधा ही,
रोग गया    बाधा नहीं।

हर- दिन, हर -पल, मृत्यु पग चल ,
बाधा   से    मैं,    लड़ता   ही गया।

जो प्राण आधी मिली मुझको
उसको   पूर्ण करता ही गया।

अब ख़ुशी के मारे फूल चूका ,
सारी बाधा को,   भूल चूका।

और,

गिरा धड़ाम,  मैं  मुँह के बल ,
अब सकता नहीं, था मैं चल।

आप से ही क्यों,     कुंध रहा ,
परिजन की उंगली धुंध रहा।


जो उंगली मिली वो आधा था,
चलने में   अब भी    बाधा था।

थोरी सीखी  थोरी छोरी,
दीवारों से     हाँथे जोड़ी।

कभी उनके सहारे सकता चल,
अब रेंगता हूँ     घुटनो के बल।

खुद को मैं,    गति देता गया,
धरती से सम्मति लेता गया।

जा पहुंचा मैं,      दीवारों तक,
बिस्तर के आगे किनारों तक।

कर धर पकड़ अपनी भुजाएँ,
ऊँची सी लगती अट्टालिकाएँ।

उनको   झकझोरा था    प्रबल,
डर लगता मुझको था हरपाल।

ना जाने उसमे     कितना बल,
हिलता ना था मुझसे इक पल।

यही सोचा करता मैं बार -बार,
कुछ तो होगा    इसके भी पार।

पूछा करता     दीवारों से,
कोई और भी है तेरे पीछे।

उलटे मुझसे ही सवाल हुआ,
क्या मेरा,        तू लाल हुआ।

पूछे वो औरत     बार- बार,
माँ , बोल दे बेटा एक बार।

प्यार पाने   के लालच में,
मैंने माँ बोला था सच में।


जो प्यार मिला वो आधा था,
इसमें रिश्तों का     बाधा था।

कई साथ थे     और मेरे संग,
कोई भाई था  औ कोई बहन।

प्यार हम सब में     बट गया,
माँ  का  दायरा   सिमट गया।

अब     और प्यार पाने को,
अपने मन को बहलाने को।

पिता का हाथ      थाम लिया,
उनको भी अपना मान लिया।

बढ़ाने लगा     अब उनसे मेल,
जिसने सिखलाए थे कई खेल।

जो खेल सीखा   वो आधा था,
उनकी व्यस्तता ही बाधा था।


पथ जोहता था    मैं  हर  दिन,
उनको ना समय था इक दिन।

प्यार और    खेल से वंचित,
अपने मन को  कर  संचित।

बिस्तर के आगे       कूद गया,
द्वार खोल सबके विरुद्ध गया।

बहार निकला मैंने देखा,
था अद्भुत दृश्य रूप रेखा।

मुझको लगता था नव सामान,
जन कहते     उसको आसमान।

तैरे  उसमे कई नभचर,
मैं भी सोचूं देखूं उड़ कर।

बाँहें पसार मन कर विस्तार ,
कोशिश की     मैंने बार-बार। 

मैं  हार गया  करते करते,
यही सोंचूं    ये कैसे उड़ते।


जो सोचा था    वो आधा था,
कमी शिक्षा की ही बाधा था।


उसके लिए भी  पहल हुआ ,
स्कुल में   मैं  दाखिल हुआ।

पहन बिलकुल नया वेश ,
पंहुचा नया था समावेश।

लेकर बिलकुल नई आशा ,
सीखी मैंने नई-नई  भाषा।

टीचर की ध्वनि पास आती ,
बैठे सीखे       हम सह-पाठी।

बाते आती     बाते जाती ,
बन गए मित्र सह -पाठी।

जो मित्र मिला वो आधा था ,
विश्वास व प्रेम का बाधा था।

कागज पेंसिल की नोक झोक ,
जो मित्र नहीं उसे पिट-ठोक।

छोड़ अब ये      पुरानी बातें ,
दोस्त बन कर ले समझौते।

युवा मन    जो चंचंल है ,
नशा नहीं ये नभतल है।

थोड़ा तो तू       आभाष कर ,
हम सब करते विश्वास  कर।

विश्वाश मिला पर आधा ही ,
मित्र बने    हुआ    प्रेम नहीं।


ढूंढा करते      हम  सह-प्रेमी ,
शुरू हुआ इश्क़ का गेम तभी।

नज़रे -मिलती, दिल जुड़ते थे ,
वादे  पुरे कर,    कुछ  तुड़ते थे।

दिल की बाते, दिल से कहते ,
घर से ज्यादा,  दिल में रहतें।

प्रेम पत्र     औ  उसके विचार ,
तेरे मेरे दिए गए,  वो उपहार।

इजहारे प्यार, नखरे हज़ार ,
पहले इंकार, करके इकरार।

सुख दुःख की बातें करते थे ,
और समाज से       डरते थे।

उसपर जीत की   तैयारी थी ,
भविष्य - प्रेम क्या भारी थी।


जो इश्क़ हुआ वो आधा था ,
अर्थ जाती    क्या बाधा था।

क्या उसकी कोई मजबूरी थी,
या तुझे कुछ   और जरुरी थी।

क्यों खुद से        तू डरता था ,
या रिश्ता कमजोड़ पड़ता था।

टूट गया  सो  क्यों रोता है ,
जाने दे सब अच्छे के लिए होता है। 

अब   खुद का       तू सम्मान कर ,
बन विश्वविजयी स्वाभिमान पर।


स्वाभिमान हुआ पर आधा ही,
परिस्थितियों की जो बाधा थी।

धरती पर पग रखता हूँ तो ,
आकाश ये     छूटे जाता है।

नभ को पकड़ु मैं जब जब ,
जमी   विलुप्त हो जाता है।

दोनों के साथ मैं रह पाऊं ,
रोज    ताल- मेल   बैठाऊँ।

कैसे चलूँ     मैं साथ -साथ ,
जीवन बीते हर शब्द- बात।

शाम दोपहर सवेर हुआ ,
जीवन  अब अंधेर हुआ।

आधे जीवन के    आधे शब्दों ,
के साथ ख़त्म क्या काम करूँ।
छोड़ो   रहने दो       क्या बोलूं ,
अब इसी के साथ विराम करूँ ||












Sunday, April 19, 2015

खोद लूँ कब्र या गुलिस्तां उगाऊँ


दो टुकड़े इज़्ज़त के कैसे लाऊँ


तिनका कहाँ से ढूँढू 


कैसे आशियाना बनाऊं 


इस खूंखार जंगल में 


दो पल चैन कहाँ पाऊँ 


समुद्र के बीच हूँ 


फिर भी प्यासा हूँ 


कैसे बारीश बुलाऊँ 


अपनी प्यास बुझाऊँ 


धुप से बदन जल पड़ा है 


कहाँ पेड़ लगाऊँ 


कब छाह मैं पाऊँ 


दो गज़ ज़मीं खोद लूँ कब्र की 


या उस ज़मीं पर गुलिस्तां उगाऊँ

Monday, February 23, 2015

खुद को झंझोड़ता

हर रोज दौड़ता
खुद को झंझोड़ता
बेड़ियों से बांध कर
बेड़ियों को तोड़ता
खुशियों की चाह में
ग़मों को छोरता
गम जो मिल जाए तो
ख़ुशी का दिल तोड़ता
फिर सँभालने दिल को
खुद दिलों को जोड़ता
टूटे ना दिल फिर से
सो दुनिया से मुह मोड़ता
लोगों से मुह मोड़ लूँ
तो ये लोग मुझसे बोलता
मेरी हैसियत को दुनिया
अपनी नज़रों से तौलता
इस बात पर मेरा
खून क्यों खौलता
अपनी हैसियत पाने को
मै हर रोज दौड़ता
खुद को झंझोड़ता

Wednesday, February 4, 2015

हे कृष्ण जरा तू बतलाना


हे कृष्ण जरा तू बतलाना
क्यों सीखा माखन चुराना

क्या स्वाद का आकर्षण था
या माखन में तेरा जीवन था

गर तू माखन चोर था
फिर क्यों इसका शोर था

सब जान गयें वो चोरी क्या
कि ज्यादा हो या थोरी क्या

तेरे जीवन के दर्पण में
देखूँ मैं खुद के मन को

मैं भी तो माखन चोर था
जब भी करता पकड़ा जाता

फिर तेरा क्यू नाम हुआ
और मैं क्यूँ बदनाम हुआ।


हे कृष्ण जरा तू बतलाना
अपने मन की पीड़ा को

हा देख लिया मैंने भी
उस प्रेम दिवानी मीरा को

मन ही मन तुझसे प्रेम करे
पूजे माने दुनिया से डरे

थी क्यों गृहस्थ जीवन में
बंधी थी किस बंधन में

तू तो जग का  तारण है
बंधन मुक्ति तेरे चरणन है

कर देता मुक्त उस मीरा को
हर लेता प्रेम की पीड़ा को

न कोई जग में है ऐसे
हिम्मत तुझे बांध सके

किस बात की है तुझे फिकर
जो खड़ा है खुद को बांध कर

ये तेरा कोई बहाना था
मीरा से दुर या जाना था

रहस्य क्या ये स्पष्ट कर
जीवन मेरा तुझपे निर्भर।


हे कृष्ण जरा तू बतलाना
नंद का था तू एक सयाना
फिर हुआ मथुरा को जाना

किसका तुझे मिला आशिष
बन  गया  तू  द्धारकाधीश

निभाए कैसे अपने कर्म
दिखाये क्या क्या पराक्रम

कैसे निकाले राह के रोड़े
सहन किए संसार के कोड़े

मै भी इसी संसार में हूं
जीवन फसी मझधार क्यूँ

मुझे भी दे सम्पूर्ण ज्ञान
मिले मुझे मान-सम्मान




Tuesday, December 30, 2014

हसु या रोऊँ


तेरे मांग में लगा सिंदूर देखा
तेरे हाथों में तेरा खून देखा

खुश हूँ आज मैं जो तू खुश है
अब तो तेरे पास सबकुछ है

मैंने कबका तुझे विसार दिया
जिन्दा थी फिर भी तुझे मार दिया

मैं कनहिया तू मेरी मीरा थी
मिलन नहीं हुई इसी की पीड़ा थी

जग को यही बात बताता था
अटूट प्रेम गाथा सुनाता था

मैं झूठा, झूठ को सच बनाता
तेरी बेवफाई में भी,
वफ़ा का मंदिर सजाता

अपना परिहास मैं क्यों उड़ाऊ
तुझे बेवफा मैं क्यूँ बुलाऊँ

तुमने कभी मुझसे मोहब्बत ना की
मेरा खुमार था तुझसे दीवानगी की

तुमने ही इंकार-ए-आगाज़ किया
महफ़िल में मुझे परित्याग किया

दिल-ही-दिल में घुट-घुट कर रोया
ना जाने कितने रातों को भी ना सोया

खुशियों से कर ली थी दुश्मनी
क्योंकि मुझमे तेरी ही थी कमी

हर रोज खुशियों का गाला घोटता
गम के विष में मैं मग्न लोटता

मैं शिव नहीं था जो विष को पी लेता
हां तू शिवानी होगी ,
विष पीकर जीना तेरी आदत पुरानी होगी

तेरी ख़ुशी पर मैं अट्टहास मारूं
या अपने गम की आरती उतारू

क्या करू कुछ समझ आता नहीं
हसु या रोऊँ मुझे कोई बताता नहीं 
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