मै बहुत ही नीच किस्म का कवी हूँ |
कभी भी अच्छे स्वर उचारित अथवा प्रकाशित करने की छमता नहीं है मुझमें ,
हमेसा ओछी शब्दों के पीछे भागता रहा हूँ |
जहाँ भी जाता हूँ ये शब्द मेरे साथ रहें है,
और सहारा के नाम पे इसने मेरा शोषण किया है|
हर बार सोचता हूँ मेरे शब्दों में वो जादू क्यों नहीं है,
जो दुसरे सुनकर मेरी ओर खिचे चले आते न हैं |
क्यों मेरा एक अलग अंदाज नहीं है,
जो मेरे आलावा सभी के पास है|
कोई कन्नड़ जनता है तो कोई बंगाली ,
पर अपने जुबान की पेटी तो है बिलकुल खली|
मैं अपनी भाषा तक भी नहीं जनता हूँ,
और शैली कहाँ से लाऊं मैं ,
मुझे क्या पता कौन सी बात किसको बुरी लगे गी
मैंने तो सिर्फ बोलना ही सिखा है
वो भी इसी समाज से जो ना जाने कैसे इतनी अच्छी बोल लेती है |
भीड़ में कोई मेरी क्यों सुनता नही है
और अकेले मै किस्से बातें करूँ |
में तो भीड़ में भी तनहा सा हूँ
और अकेले में ना जाने किस महफ़िल से बाते करता हूँ |
ये मेरे अल्फाज़ को भी नहीं पता है
की मेरा अल्फाज़ क्या है |
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