कल रात के भयंकर दंगे ने ,जाने
कितने मासूमों को निगल लिया ।
उनके अध् कटे अंग सड़क पर
यहाँ - वहां, जहाँ-तहां बिखरे धर।
इन गुलाम सब्जियों की रोज
बोली लगातें कसाई सामान ग्राहक
उन्हें बेचते खूंखार निर्मम सब्जीवाले ।
वो टुकुर - टुकुर देखती थी परवल
गोभियों की भी थी वहां हलचल
प्राण के लाले थे वहां हर-पल ।
देखा था मैंने, बैगन को मुह चमकाते
उसके करीब जल्दी कोई नहीं जातें
कटहल के अध् कटे सर टोकरियों में परें थे
और उनको खरीदने वाले भी ग्राहक बरे थे ।
प्याज देखकर सभी के आखों में पानी आते
सभी अपना बटुआ- पैसा या नोट मिलातें
गरीब आम आदमी की भांति,आलुओं को
32-40 रूपए पसेरी का भाव मिलता
मिटटी में सने गरीबों सा घाव मिलता।
वो बेबस देखता सामने वाले ठेले पर
रखे अंगूर- सेव- संतरे की ठाठ,
देश के नेताओं की जैसी होती है बात ।
वो टमाटर मुखबरी का करते है काम,
सो उनको गवानी परती है अपनी जान
हर रोज इनके खून से भरी लाशें
सड़क पर सुबह देखने को मिलती है |
ना जाने इसमें उन किसानो की क्या गलती है,
जो बरे नाजों-ख्यालों से इन्हें पालते है ,
सजा-सजा कर छोटे बड़े बक्सों में डालते है।
कभी सलाद में तो कभी सब्जिओं में ,
तो कभी समोसे की चटनियों में पाए जाते है
और पकडे जाने पर बरी बेशर्मी से खाए जाते है।
हर रोज इन्हें खरीद लोग घर को ले जाते है ,
कुछ फ्रिज तो कुछ टोकरियों में जगह पाते है ।
चाकू और करची के बल इनको नचाते है ,
हर रोज गरम आग पर इनको चलाते है ।
इनके कटे घाव पर स्वाद -अनुसार नमक डालते है ,
और ना जाने कितने गर्म तेल में इन्हें उबालते है ।
आखिर कार इन्हें लज़ीज़ , स्वादिस्ट का ,
मेडल-तमगा देकर निगल जाते है ,
और इनाम बीवियों के हवाले थमाते है।