बचपन से लेकर आज तक,
मेरा जीवन, आधा है।
जब भी पूर्ण करना चाहा,
मिले मुझको कई बाधा है।
जो प्राण मिला वो आधा था,
ना जानू मैं, क्या बाधा था।
शायद, रोग हज़ार था,
पर उसका उपचार था।
उपचार हुआ आधा ही,
रोग गया बाधा नहीं।
हर- दिन, हर -पल, मृत्यु पग चल ,
बाधा से मैं, लड़ता ही गया।
जो प्राण आधी मिली मुझको
उसको पूर्ण करता ही गया।
अब ख़ुशी के मारे फूल चूका ,
सारी बाधा को, भूल चूका।
और,
गिरा धड़ाम, मैं मुँह के बल ,
अब सकता नहीं, था मैं चल।
आप से ही क्यों, कुंध रहा ,
परिजन की उंगली धुंध रहा।
जो उंगली मिली वो आधा था,
चलने में अब भी बाधा था।
थोरी सीखी थोरी छोरी,
दीवारों से हाँथे जोड़ी।
कभी उनके सहारे सकता चल,
अब रेंगता हूँ घुटनो के बल।
खुद को मैं, गति देता गया,
धरती से सम्मति लेता गया।
जा पहुंचा मैं, दीवारों तक,
बिस्तर के आगे किनारों तक।
कर धर पकड़ अपनी भुजाएँ,
ऊँची सी लगती अट्टालिकाएँ।
उनको झकझोरा था प्रबल,
डर लगता मुझको था हरपाल।
ना जाने उसमे कितना बल,
हिलता ना था मुझसे इक पल।
यही सोचा करता मैं बार -बार,
कुछ तो होगा इसके भी पार।
पूछा करता दीवारों से,
कोई और भी है तेरे पीछे।
उलटे मुझसे ही सवाल हुआ,
क्या मेरा, तू लाल हुआ।
पूछे वो औरत बार- बार,
माँ , बोल दे बेटा एक बार।
प्यार पाने के लालच में,
मैंने माँ बोला था सच में।
जो प्यार मिला वो आधा था,
इसमें रिश्तों का बाधा था।
कई साथ थे और मेरे संग,
कोई भाई था औ कोई बहन।
प्यार हम सब में बट गया,
माँ का दायरा सिमट गया।
अब और प्यार पाने को,
अपने मन को बहलाने को।
पिता का हाथ थाम लिया,
उनको भी अपना मान लिया।
बढ़ाने लगा अब उनसे मेल,
जिसने सिखलाए थे कई खेल।
जो खेल सीखा वो आधा था,
उनकी व्यस्तता ही बाधा था।
पथ जोहता था मैं हर दिन,
उनको ना समय था इक दिन।
प्यार और खेल से वंचित,
अपने मन को कर संचित।
बिस्तर के आगे कूद गया,
द्वार खोल सबके विरुद्ध गया।
बहार निकला मैंने देखा,
था अद्भुत दृश्य रूप रेखा।
मुझको लगता था नव सामान,
जन कहते उसको आसमान।
तैरे उसमे कई नभचर,
मैं भी सोचूं देखूं उड़ कर।
बाँहें पसार मन कर विस्तार ,
कोशिश की मैंने बार-बार।
मैं हार गया करते करते,
यही सोंचूं ये कैसे उड़ते।
जो सोचा था वो आधा था,
कमी शिक्षा की ही बाधा था।
उसके लिए भी पहल हुआ ,
स्कुल में मैं दाखिल हुआ।
पहन बिलकुल नया वेश ,
पंहुचा नया था समावेश।
लेकर बिलकुल नई आशा ,
सीखी मैंने नई-नई भाषा।
टीचर की ध्वनि पास आती ,
बैठे सीखे हम सह-पाठी।
बाते आती बाते जाती ,
बन गए मित्र सह -पाठी।
जो मित्र मिला वो आधा था ,
विश्वास व प्रेम का बाधा था।
कागज पेंसिल की नोक झोक ,
जो मित्र नहीं उसे पिट-ठोक।
छोड़ अब ये पुरानी बातें ,
दोस्त बन कर ले समझौते।
युवा मन जो चंचंल है ,
नशा नहीं ये नभतल है।
थोड़ा तो तू आभाष कर ,
हम सब करते विश्वास कर।
विश्वाश मिला पर आधा ही ,
मित्र बने हुआ प्रेम नहीं।
ढूंढा करते हम सह-प्रेमी ,
शुरू हुआ इश्क़ का गेम तभी।
नज़रे -मिलती, दिल जुड़ते थे ,
वादे पुरे कर, कुछ तुड़ते थे।
दिल की बाते, दिल से कहते ,
घर से ज्यादा, दिल में रहतें।
प्रेम पत्र औ उसके विचार ,
तेरे मेरे दिए गए, वो उपहार।
इजहारे प्यार, नखरे हज़ार ,
पहले इंकार, करके इकरार।
सुख दुःख की बातें करते थे ,
और समाज से डरते थे।
उसपर जीत की तैयारी थी ,
भविष्य - प्रेम क्या भारी थी।
जो इश्क़ हुआ वो आधा था ,
अर्थ जाती क्या बाधा था।
क्या उसकी कोई मजबूरी थी,
या तुझे कुछ और जरुरी थी।
क्यों खुद से तू डरता था ,
या रिश्ता कमजोड़ पड़ता था।
टूट गया सो क्यों रोता है ,
जाने दे सब अच्छे के लिए होता है।
अब खुद का तू सम्मान कर ,
बन विश्वविजयी स्वाभिमान पर।
स्वाभिमान हुआ पर आधा ही,
परिस्थितियों की जो बाधा थी।
धरती पर पग रखता हूँ तो ,
आकाश ये छूटे जाता है।
नभ को पकड़ु मैं जब जब ,
जमी विलुप्त हो जाता है।
दोनों के साथ मैं रह पाऊं ,
रोज ताल- मेल बैठाऊँ।
कैसे चलूँ मैं साथ -साथ ,
जीवन बीते हर शब्द- बात।
शाम दोपहर सवेर हुआ ,
जीवन अब अंधेर हुआ।
आधे जीवन के आधे शब्दों ,
के साथ ख़त्म क्या काम करूँ।
छोड़ो रहने दो क्या बोलूं ,
अब इसी के साथ विराम करूँ ||