हर रोज़ सोने की आदत सी हो गयी है
आँखे खुलीं है और रोने की आदत सी हो गयी है
क्यों शोलो को भड़कने नहीं देते ......................
धुआँ तो उठते देखता हूँ पर चिंगारी बुझाने की आदात सी हो गयी है
भले ही कबूतरों को खुला छोर रखा है ...............
परिंदे जब भी उड़ते है उन्हें गिराने की आदत सी हो गयी है
कहते हो की यहाँ ही युद्ध नहीं ..................
और हमें लड़वाने की आदत सी हो गयी है
उस खूंखार मुज़रिम का क्या कसूर ................
उसे तो सज़ा भुगतने की आदत सी हो गयी है
बा उम्र रास्तों पर चलूँगा मै ..............
मेरी मंजिल तलाशने की आदत सी हो गयी है
जब भी देखता हूँ नज़रे उठाकर उन्हें .......
उनकी आँखे चुराने की आदत सी हो गयी है
गुजर गया वक्त दरीया की तरह ........
अब शिकवे गिनाने की आदत सी हो गयी है
शहर घूम के कई थक चूका हूँ मै .....
अब घर लौटने की आदत सी हो गयी है